Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद



पण्डित नोखेरामजी की चौपाल आ गयी। दारोग़ाजी एक चारपाई पर बैठ गये और बोले -- तुम लोगों ने क्या निश्चय किया? रुपए निकालते हो या तलाशी करवाते हो?
दातादीन ने आपत्ति की -- मगर हुज़ूर...
'मैं अगर-मगर कुछ नहीं सुनना चाहता। '
झिंगुरीसिंह ने साहस किया -- सरकार यह तो सरासर...
'मैं पन्द्रह मिनट का समय देता हूँ। अगर इतनी देर में पूरे पचास रुपए न आये, तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी। और गंडासिंह को जानते हो। उसका मारा पानी भी नहीं माँगता। '
पटेश्वरीलाल ने तेज़ स्वर से कहा -- आपको अख़्तियार है, तलाशी ले लें। यह अच्छी दिल्लगी है, काम कौन करे, पकड़ा कौन जाय।
'मैंने पचीस साल थानेदारी की है जानते हो? '
'लेकिन ऐसा अँधेर तो कभी नहीं हुआ। '
'तुमने अभी अँधेर नहीं देखा। कहो तो वह भी दिखा दूँ। एक-एक को पाँच-पाँच साल के लिए भेजवा दूँ। यह मेरे बायें हाथ का खेल है। डाके में सारे गाँव को काले पानी भेजवा सकता हूँ। इस धोखे में न रहना! '
चारों सज्जन चौपाल के अन्दर जाकर विचार करने लगे। फिर क्या हुआ किसी को मालूम नहीं, हाँ, दारोग़ाजी प्रसन्न दिखायी दे रहे थे। और चारों सज्जनों के मुँह पर फटकार बरस रही थी। दारोग़ाजी घोड़े पर सवार होकर चले, तो चारों नेता दौड़ रहे थे। घोड़ा दूर निकल गया तो चारों सज्जन लौटे; इस तरह मानो किसी प्रियजन का संस्कार करके श्मशान से लौट रहे हों। सहसा दातादीन बोले -- मेरा सराप न पड़े तो मुँह न दिखाऊँ।
नोखेराम ने समर्थन किया -- ऐसा धन कभी फलते नहीं देखा।
पटेश्वरी ने भविष्यवाणी की -- हराम की कमाई हराम में जायगी।
झिंगुरीसिंह को आज ईश्वर की न्यायपरता में सन्देह हो गया था। भगवान् न जाने कहाँ हैं कि यह अँधेर देखकर भी पापियों को दंड नहीं देते। इस वक़्त इन सज्जनों की तस्वीर खींचने लायक़ थी।

10.
हीरा का कहीं पता न चला और दिन गुज़रते जाते थे। होरी से जहाँ तक दौड़धूप हो सकी की; फिर हारकर बैठ रहा। खेती-बारी की भी फ़िक्र करनी थी। अकेला आदमी क्या-क्या करता। और अब अपनी खेती से ज़्यादा फ़िक्र थी पुनिया की खेती की। पुनिया अब अकेली होकर और भी प्रचंड हो गयी थी। होरी को अब उसकी ख़ुशामद करते बीतती थी। हीरा था, तो वह पुनिया को दबाये रहता था। उसके चले जाने से अब पुनिया पर कोई अंकुस न रह गया था। होरी की पट्टीदारी हीरा से थी। पुनिया अबला थी। उससे वह क्या तनातनी करता। और पुनिया उसके स्वभाव से परिचित थी और उसकी सज्जनता का उसे ख़ूब दंड देती थी। ख़ैरियत यही हुई कि कारकुन साहब ने पुनिया से बक़ाया लगान वसूल करने की कोई सख़्ती न की, केवल थोड़ी सी पूजा लेकर राज़ी हो गये। नहीं, होरी अपनी बक़ाया के साथ उसकी बक़ाया चुकाने के लिए भी क़रज़ लेने को तैयार था। सावन में धान की रोपाई की ऐसी धूम रही कि मजूर न मिले और होरी अपने खेतों में धान न रोप सका; लेकिन पुनिया के खेतों में कैसे न रोपाई होती। होरी ने पहर रात-रात तक काम करके उसके धान रोपे। अब होरी ही तो उसका रक्षक है! अगर पुनिया को कोई कष्ट हुआ, तो दुनिया उसी को तो हँसेगी। नतीजा यह हुआ कि होरी को ख़रीफ़ फ़सल में बहुत थोड़ा अनाज मिला, और पुनिया के बखार में धान रखने की जगह न रही। होरी और धनिया में उस दिन से बराबर मनमुटाव चला आता था। गोबर से भी होरी की बोल-चाल बन्द थी। माँ-बेटे ने मिलकर जैसे उसका बहिष्कार कर दिया था। अपने घर में परदेशी बना हुआ था। दो नावों पर सवार होनेवालों की जो दुर्गति होती है, वही उसकी हो रही थी। गाँव में भी अब उसका उतना आदर न था। धनिया ने अपने साहस से स्त्रियों का ही नहीं, पुरुषों का नेतृत्व भी प्राप्त कर लिया था। महीनों तक आसपास के इलाक़ों में कांड की ख़ूब चर्चा रही। यहाँ तक कि वह अलौकिक रूप तक धारण करता जाता था -- 'धनिया नाम है उसका जी। भवानी का इष्ट है उसे। दारोग़ाजी ने ज्योंही उसके आदमी के हाथ में हथकड़ी डाली कि धनिया ने भवानी का सुमिरन किया। भवानी उसके सिर आ गयी। फिर तो उसमें इतनी शिक्त आ गयी कि उसने एक झटके में पति की हथकड़ी तोड़ डाली और दारोग़ा की मूँछें पकड़कर उखाड़ लीं, फिर उसकी छाती पर चढ़ बैठी। दारोग़ा ने जब बहुत मानता की, तब जाकर उसे छोड़ा'
कुछ दिन तक तो लोग धनिया के दर्शनों को आते रहे। वह बात अब पुरानी पड़ गयी थी; लेकिन गाँव में धनिया का सम्मान बहुत बढ़ गया। उसमें अद्भुत साहस है और समय पड़ने पर वह मर्दो के भी कान काट सकती है। मगर धीरे-धीरे धनिया में एक परिवर्तन हो रहा था। होरी को पुनिया की खेती में लगे देखकर भी वह कुछ न बोलती थी। और यह इसलिए नहीं कि वह होरी से विरक्त हो गयी थी; बल्कि इसलिए कि पुनिया पर अब उसे भी दया आती थी। हीरा का घर से भाग जाना उसकी प्रतिशोध-भावना की तुष्टि के लिए काफ़ी था। इसी बीच में होरी को ज्वर आने लगा। फ़स्ली बुख़ार फैला था ही। होरी उसके चपेट में आ गया। और कई साल के बाद जो ज्वर आया, तो उसने सारी बक़ाया चुका ली। एक महीने तक होरी खाट पर पड़ा रहा। इस बीमारी ने होरी को तो कुचल डाला ही, पर धनिया पर भी विजय पा गयी। पति जब मर रहा है, तो उससे कैसा बैर। ऐसी दशा में तो बैरियों से भी बैर नहीं रहता, वह तो अपना पति है। लाख बुरा हो; पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे हैं, सुख किया है तो उसी के साथ, दुःख भोगा है तो उसी के साथ, अब तो चाहे वह अच्छा है या बुरा, अपना है। दाढ़ीजार ने मुझे सबके सामने मारा, सारे गाँव के सामने मेरा पानी उतार लिया; लेकिन तब से कितना लज्जित है कि सीधे ताकता नहीं। खाने आता है तो सिर झुकाये खाकर उठ जाता है, डरता रहता है कि मैं कुछ कह न बैठूँ। होरी जब अच्छा हुआ, तो पति-पत्नी में मेल हो गया था। एक दिन धनिया ने कहा -- तुम्हें इतना ग़ुस्सा कैसे आ गया। मुझे तो तुम्हारे ऊपर कितना ही ग़ुस्सा आये मगर हाथ न उठाऊँगी। होरी लजाता हुआ बोला -- अब उसकी चर्चा न कर धनिया! मेरे ऊपर कोई भूत सवार था। इसका मुझे कितना दुःख हुआ है, वह मैं ही जानता हूँ।
'और जो मैं भी उस क्रोध में डूब मरी होती!'
'तो क्या मैं रोने के लिए बैठा रहता? मेरी लहाश भी तेरे साथ चिता पर जाती।'
'अच्छा चुप रहो, बेबात की बात मत बको। '
'गाय गयी सो गयी, मेरे सिर पर एक विपत्ति डाल गयी। पुनिया की फ़िक्र मुझे मारे डालती है। '
'इसीलिए तो कहते हैं, भगवान् घर का बड़ा न बनाये। छोटों को कोई नहीं हँसता। नेकी-बदी सब बड़ों के सिर जाती है। '

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